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गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016

वजूद

Wajood in Hindi

रात को मैं और मेरे पति टीवी देख रहें थे ,जिसमें मुस्लिम महिलाओं के विचार और अकारण ही पुरुषों द्वारा दिए जाने वाले तलाक के विषय पर गम्भीर चर्चा चल रही थी। रिमोट मेरे हाथों में था। चूँकि मुझे न्यूज़ व राजनीतिक खबरों का ज्यादा शौक नहीं है, तो मैंने अपने पसंद के मुताबिक चैनल बदल लिया। अपने पति के कहने के बाद, ना चाहते हुए, दुबारा न्यूज़ चैनल  लगा दिया ,फिर किचन में काम करने चली गई। मेरे कानों में ख़बरों की आवाज आ रही थी। मैंने देखा, तब जाकर मुझे अहसास हुआ क़ि हमारे भारत देश की मुस्लिम धर्म की महिलाएँ जीवन भर कैसी मनोदशा से  गुजरती हैं।

ना उन्हें खुल कर जीने की आजादी है , ना पसंद के कपडे पहनने की और   सबसे कीमती जीवन जो हमारे विधाता ने हमें दी है, उसे भी मन मुताबिक जी नहीं सकती हैं। हमारे भारत वर्ष को आजाद हुए तकरीबन 70 वर्ष हो गए हैं और यहाँ पर सभी को अपना जीवन अपने तरीके से जीने का अधिकार है। महिलाओं की बात करें, तो यहाँ पर सभी महिलाओँ को  समान रूप से कानून व समाज द्वारा स्वेच्छा से अपना जीवन जीने का अधिकार है। फिर ये मुस्लिम महिलाओं के साथ क्यों भेद -भाव हो रहा है ? किसी भी धर्म में दो विवाह को करने का अधिकार नहीं दिया गया है। यदि एक पत्नी के जीवित रहते पुरुष दूसरा विवाह करता है तो कानून उसके साथ कड़क लहज़े में पेश आता है और जेल भी हो जाती है। ये मुस्लिम धर्म का कैसा न्याय है ? कैसा धर्म है ? किसी भी धर्म में किसी को कष्ट देना नहीं बताया जाता है।

 मुस्लिम धर्म की महिलाओं की हृदय की दशा का हम अनुमान भी नहीं लगा सकते हैं। जिस पति को अपना सर्वस्व मान कर महिलाएँ अपने पिता का आँगन छोड़ कर आती है ,अपना सर्वस्व न्योछावर का देती है , पुरुष को ख़ुशी देती है , उसका वंश बढ़ाती  है , उसके परिवार को अपनाकर सहेजती व सवारती है, उसके द्वारा जाने - अनजाने थोड़ी सी गलती हो जाने पर उसी पति द्वारा उसको तलाक शब्द का 3 पत्थर मार कर घर से बाहर फेक दिया जाता है। आखिर कब तक ये तलाक नाम का पत्थर  मुस्लिम महिलाओँ के जीवन को बर्बाद करते रहेंगे ?

कब जागेगा कानून ? कब ? हजारों प्रश्न हैं , जो मैं सभी से करना चाहती हूँ। अन्य धर्मों में विवाह की अनुमति नहीं माँगते, पर तलाक के समय दोनों पक्षों के राय के बाद ही अलगाव सम्भव है। पर मुस्लिम धर्म में शादी के समय दोनों पक्षों के तीन बार कबूल करने के बाद रिश्ता जुड़ता है और अलगाव सिर्फ पुरुष वर्ग के 3 बार तलाक कहने से सम्भव हो जाता है। ये मुस्लिम धर्म का कैसा कानून है ? कब तक 'तलाक' नाम के  गुलामी की जंजीरों से जकड़ी रहेगी मुस्लिम नारी ? क्या किसी का समर्पण, त्याग इन तलाक के तीन पत्थर  मार देने मात्र  से सब कुछ खत्म हो जाता है ? क्या यह मानवता की दृष्टि से उचित है ?

भारत देश ही ऐसा देश है, जहाँ सभी धर्मों को सामान अधिकार मिले हैं। हम सभी मानते भी हैं कि पुरुष और नारी एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। नारी पुरुष की शक्ति है, तो पुरुष नारी का सम्मान।  फिर कैसे कोई अपनी शक्ति को एक पल में जुदा कर  सकता है ?

मैं आप सभी से कहना चाहती हूँ कि ये मुद्दा मुस्लिम महिलाओं का जरूर है , पर एक इंसान होने के नाते हमें इनके दर्द को अपना दर्द समझकर सोचना चाहिए। उनको भी वो सारे  हक़ मिलने चाहिए, जो अन्य धर्म में महिलाओं को प्राप्त हैं। और रही बात कानून की, तो कानून को किसी भी दायरे में बंध कर फैसला नहीं करना चाहिए। इसलिए कानून की देवी की आँखों पर काली पट्टी बंधी होती है, जो हमें यही संदेश देती है कि कानून का फैसला  सभी के लिए समान होगा और  जब भी कोई तलाक लेकर अपनी पत्नी से अलग होना चाहे तो दोनों की सहमति अनिवार्य होनी चाहिए, ना कि इन धर्म के ठेकेदारों की खुद की बनाई दुनियाँ और रिवाज़ों के अनुसार।

मैं इन धर्म के कट्टर ठेकेदारों से  कहना चाहती हूँ कि जरा ये तो सोचो कि हम इंसान हैं। विधाता ने हमें इंसान बनाया है ,इंसानों की बस्ती में हम इंसान बन कर ही खुश रह सकते हैं, ना की किसी को दुखी व बर्बाद करके। कुछ देर  के लिए  सोचिये ये सारे अधिकार जो मुस्लिम  धर्म के ठेकेदारों ने पुरुष  वर्ग को दे रखें हैं, यदि महिलाओं को मिले होते तो, क्या पुरुष  खुद अपने वजूद को मिटते बर्दाश्त कर पाते ? किसी को कोई हक़ नहीं है कि वो किसी के वजूद को अपने अहंकार व अहम् के लिए मिटाने की चेष्टा करे। बस बहुत हुआ अब ! 

Image-Google

8 टिप्‍पणियां:

  1. रश्मि जी यह तो मुस्लिमो के शरिया क़ानून की देन है इसके लिए उनका क़ानून ही ज़िम्मेदार है इसमे कोई क्या कर सकता है, आपके विचार नेक है, आपकी सोच अच्छी है, आपका प्रयास सराहनीय है.

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    1. आपसे मैं कहना चाहती हूँ कि जब भी हम किसी चीज़ में बदलाव चाहते हैं, तो हमारा एक मत होना आवश्यक होता है. कॉमेंट के लिए आपका धन्यवाद..

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  2. कई मुस्लिम देशों जैसे इंडोनेशिया और यहाँ तक कि पड़ोसी देश पाकिस्तान के क़ानून में भी 'तीन तलाक़' की मान्यता नहीं है, तो फिर भारत की मुस्लिम स्त्रियों के साथ ये भेद-भाव क्यों ? इसका दर्द केवल वही महिलाएँ समझ सकती हैं , जिन्होने इसे झेला हुआ है. मुस्लिम धर्म के ठेकेदार ये क्यों नहीं समझते कि ऐसा वाक़या उनकी बेटियों और बहनों के साथ भी हो सकता है..

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    1. दीपा जी, आपने बिल्कुल सही कहा, इनके दर्द को वही समझ सकता है, जो उस दौर से गुजरा हो. हम तो कल्पना मात्र ही कर सकते हैं. यदि मेरे इस पोस्ट के द्वारा से समाज में कुछ सार्थक परिवर्तन आ सके तो मैं अपने पोस्ट को सफल समझूंगी . दीपा जी, गंभीर मुद्दे पर जवाब देने के लिए आपका धन्यवाद !

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  3. jb apne hit ki baat hoti hai to log saare niyam kanoon taak par rakh dete hai yhi hamare samaj ki soch hai rashmi ji

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    1. ये बात सच है कि किसी एक के चाहने से समाज के नियम-क़ानून को बदल पाना संभव नहीं है, पर ये भी सच है कि 'नामुमकिन कुछ भी नहीं होता', वरना हम स्वतंत्र भारत में साँस नहीं ले रहे होते. अपना विचार देने के लिए आपका आभार !

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  4. रश्मि जी,

    आपने एक महिला का दर्द समझने की सफल कोशिश की है, और एक महिला होने के नाते आप किसी भी पुरुष की अपेक्षा ज्यादा अच्छे तरीके से इसको महसूस कर सकती हैं। मेरा मानना है कि पति - पत्नी का, एक दूसरे से अलग रहने का फैसला, दोनों की आपसी सहमति से ही होना चाहिए और ये सिर्फ और सिर्फ आखिरी विकल्प के तौर पर ही लिया जाना चाहिए। तलाक से पहले सारे उपलब्ध विकल्प का उपयोग करके इस पवित्र रिश्ते को बचाने की हर संभव कोशिश की जानी चाहिए। तलाक का फैसला आवेश या तैश में आकर लेने की चीज नहीं है।

    एक अच्छे पोस्ट के लिए बधाई फिर से कबूल कीजिये।

    मृत्युंजय
    www.mrityunjayshrivastava.com

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    1. मृत्युंजय जी, आपकी बात मुझे अच्छी लगी. अगर सभी लोग दूसरों के प्रति थोड़े संवेदनशील हो जाए तो फिर बात ही क्या हो ! काश, सभी लोगों की सोच आपके विचारों की तरह ही नेक हो,आपने जो विचार दिया है, उसके लिए आपका आभार ! आगे भी अपने विचार से अवगत कराते रहिएगा..

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