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मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

हमारे मददगार

Hamaare Madadgaar in Hindi

आजकल महंगाई की वजह से हर कोई परेशान है, चाहे वो किसी भी आय- वर्ग का क्यों ना हो। हर आय-वर्ग के परिवार का मुखिया परिवार के दायित्वों को अच्छी  तरह निभाने के लिए दिन रात लगा हुआ है। वो सदस्यों की जरूरतों को पूरी करते -करते परेशान  हो जाता है।  जरा सोचिये ! जिन घरों का चूल्हा रोज की कमाई से जलता हो तो इस बढ़ती महंगाई ने उन लोगों पर क्या प्रभाव डाला होगा ? गरीब घरों की अशिक्षित महिलायें अपने घरों को चलाने के लिए दूसरों के घरों का काम -काज करने के लिए कितनी मजबूर हो जाती हैं ? 

हमारे हेल्पर, जिनको हम अपने आराम  के खातिर  उनको  काम करने के लिए रखते हैं, वो कैसे अपने घर का काम और साथ में  हमारे जैसे ना जाने कितने घरों का काम करती हैं। वो इतना काम कैसे कर पाती हैं, सोच कर आश्चर्य होता है ! मेरे घर में भी एक हेल्पर आती हैं।  अपने पति के देहान्त हो जाने के बाद बच्चों के पालन -पोषण की जिम्मेदारी को अच्छे से निभाने  के लिए मज़बूरी वश ये काम करतीं हैं । कभी-कभी मैं ये सोचती हूँ कि  कितना कठिन काम है उनका ? वो  कार्य  जो हमारे  खुद के घर के होते हैं , हमें उनको  करने में कठिनाई  होती है। और हम अपने हेल्परों को वो सारे  काम चंद रूपये देकर अधिकारपूर्वक करवाते हैं। 

 अगर  अनजाने में, उनसे कोई चूक हो जाती है तो हम उनको चार बातें भी सुना देतें है। जरा सी  अपनी तबियत ख़राब लगती है तो हम बिस्तर पर आराम करने लगते हैं। और काम करने वालों को एक दिन की भी छुट्टी नहीं देना चाहते हैं। अगर हमें एक दिन  अपने घर का सारा काम करना हो तो उस दिन हमें ये अहसास होगा   कि  हमारे घर में कितना अधिक काम होता है। घर के काम करते हुए, शाम तक हम इतने थक जायेंगे  कि हिलने का भी मन नहीं करेगा और वही काम हम कुछ रुपये देकर अपने हेल्परों के द्वारा करवा लेतें  हैं। 

जरा एक बार सोचिये, काम वाली बाई, जिनको अपने घर के साथ और कई घरों का काम करना पड़ता है ,उनके शरीर की शाम तक क्या दशा होती होगी ? क्या  शाम को उनमें अपने परिवार के लिए रोटियाँ भी पकाने की हिम्मत बची होती  होगी ? मगर हम क्यों इतना सोचने लगे? हमें क्या फर्क पड़ता है ? हमने तो अपने कार्यों के बदले उनको रूपये जो दे दिए।  कुछ लोग की ये मानसिकता होती है कि यदि ढूंढने पर कोई चीज घर में ना मिले तो  सीधा  शक सिर्फ घर  में काम करने वालों पर ही जाता है। और वो उनको चोर ठहराने से भी नहीं चूकते हैं। और अगर सामान घर में ही मिल जाता है, तो हम उनको जानकारी तक नहीं होने देते की सामान मिल गया है। 

मैं पढ़ाई के दौरान  रूम लेकर रहती थी और मकान मालिक के घर एक कम उम्र की महिला काम करने आती थी। शायद वह नई  थी।  मगर उसके काम में  बड़ी ही सफाई थी और अच्छे से सबके साथ घुल मिल गई थी। हमेशा खुश  रहती थी। उसके आने पर सभी उससे कोई भी काम कहते  तो वो 'नहीं' कभी नहीं बोलती थी। एक दिन मकान-मालिक के घर में कुछ  शोर सुनाई दे रहा था , ना जाने  क्या बात थी। बाद में पता चला कि मकान-मालिक के पर्स से 1600 रुपये ना जाने कहाँ चले गए, जो नहीं मिल रहे थे। उनके घर में तो  मानों भूचाल आ गया था। सब सिर्फ काम वाली महिला पर शक कर रहे थे।  लोगो ने उस रूपये के लिए उसे बहुत परेशान किया। मैंने सभी किरायदारों के सामने  उसको रोते  देखा था। 

पूछने पर हमसे उसने सिर्फ इतना कहा,"अगर मुझे चोरी करनी थी तो आप जैसे बड़े लोगो के घर पर चौका बर्तन नहीं करती। " और वो चली गई। फिर वो अगले दिन काम पर नहीं आई। उसने वहाँ का काम छोड़ दिया। हम सभी यही सोचते रहे कि उसी ने चोरी की है, तभी तो काम छोड़ कर चली गई। कुछ  दिन के बाद हम छत पर टहल रहे थे और मकान-मालिक का छोटा बेटा बॉल खेल रहा था ,तो मेरे भाई ने यूँ ही पूछ लिया ,कि तुम्हारे पापा का पैसा मिला की नहीं ? तो उसने बताया कि पैसा तो गायब ही नहीं हुआ था।  भईया को स्कूल में फीस जमा करना  था। पापा ने उसे दिया था। पापा को भूल गया था । भाई ने उससे कहा कि काम वाली आंटी जो आती थी तो उनको जाकर  उनसे सॉरी बोलो ,तुम लोगो ने झूठ-मूठ में उनको गलत बात कही । 

बात मजाक की थी। मगर सोचने वाली बात यह है कि यदि कोई गुनाह किये बिना किसी को मुजरिम ठहरा दिया जाय तो उस व्यक्ति पर क्या बीतती होगी। आज-कल के ज़माने में  गरीबी अपने आप में किसी गुनाह से कम नहीं है। क्योंकि गरीब के ईमान की कोई कीमत नहीं होती और उसके ईमान की कीमत को चुका पाना, पैसे वालों के बस की बात नहीं होती।  

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