इस बात को हम सभी जानते हैं कि हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है। हमे आँख, नाक, मुख, हाथ-पैर और जुबान तो जन्म से मिल जाते है, बस उनके विकास और अनुपात में वृद्धि होती है। पर एक ऐसी चीज जो इस दुनिया में अनमोल है, जो हमें ईश्वर के द्वारा नहीं बल्कि अपने चित्त और विवेक से प्राप्त होती है - वो है हमारा स्वभाव, हमारा सभी के साथ पेश आने का तरीका, जिससे उस व्यक्ति की पहचान, नाम से कहीं ज्यादा उसके बर्ताव से दूसरे व्यक्ति के मन मस्तिष्क में गहरी छाप छोड़ जाते हैं। जिसे हम 'सुव्यवहार' भी कह सकते हैं।
ऐसा वास्तविक में है और हम सभी ने देखा होगा कि किसी-किसी का स्वभाव होता है कि कुछ लोग अपने मन की बात को किसी के साथ सहजता से शेयर कर देते हैं और कुछ लोग ऐसे व्यवहार के भी होते हैं जो अपने भीतर अथाह बातों को सँजोकर रखते चले जाते हैं। जैसे मन ना हुआ स्टोर-रूम हो गया, जहाँ हम अपने पुराने सामानों को सहेज देते हैं। ऐसे व्यक्ति 'अंतर्मुखी' होते हैं, उनके भीतर की झिझक उनको किसी के सामने अपने दिल की बात रखने ही नहीं देती। उनके दिल में इतना डर समाया रहता है जिसकी वजह से वह अपने मन की बातें किसी से शेयर करना ही नहीं चाहते हैं। पर यहाँ मैं आप सभी से ये कहना चाहती हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति को यह बात समझना बहुत आवश्यक हैं कि अपने व्यवहार में सन्तुलन रखना हमारे ही वश में होता है। हमें ना तो अधिक 'अंतर्मुखी' होना चाहिए और ना ही बहुत अधिक 'बहिर्मुखी'।
'बहिर्मुखी' लोगो के व्यवहार किसी को कभी ख़ुशी तो कभी - कभी किसी को बहुत अधिक कष्ट भी पंहुचा जाता है ।ऐसे व्यक्ति किसी भी बात को मन में ना रख कर सबके सामने जाहिर करने के आदी होते हैं, जिसके कारण कभी - कभी वे निंदा के पात्र भी बन जाते हैं। ऐसे व्यवहार से वे खुद को मुश्किलों में भी डाल देते हैं। ऐसे व्यवहार के लोग अपने मन के भाव सामने प्रकट कर तो देते हैं पर सामने वाले व्यक्ति पर उस बात का क्या प्रभाव पड़ेगा, एक पल भी इस बात को नहीं सोचते। इस बर्ताव की वजह से उनको खुद भी ना जाने कितनी परेशानियाँ अकारण ही झेलनी पड़ती हैं।
अंतर्मुखी स्वभाव के व्यक्ति भी अपने परेशानियों को दूसरों के साथ नहीं बात पाने की वजह से हमेशा निराश, उदास और चिंतित नजर आते हैं। क्योकि कहते हैं ना कि जब हम अपने दुखों को बाँटते हैं तो वह कम होता है और हमारा मन भी हल्का हो जाता है और जब हम ख़ुशी को बाँटते हैं तो वह कई गुनी बढ़ जाती है।
भारतीय संस्कृति में योग के माध्यम से इसके उपाय तो निकाले गए हैं । मेडिटेशन का नाम सभी जानते हैं। पर यह भी तभी तक काम करते है जब तक हम इसे जारी रखते हैं । जब छोड़ देते हैं तो हमारी समस्या पुनः वापस हमारे सामने आकर खड़ी हो जाती है। पर सबसे सरल उपाय है कि हम जिसे भी अपना शुभ चिंतक समझे, अपनी बात को उससे शेयर करें और चुटकियों में खुल कर जियें, चिंता से मुक्त हो जाएँ।
हमारा स्वभाव जैसा भी है, हम उसे बदल तो नहीं सकते, पर अपने चित और विवेक के द्वारा उसमें संतुलन स्थापित कर उसे सुन्दर जरूर बना सकते है। मैं आप सभी से कहना चाहती हूँ कि समय, उम्र और जुबान से निकली बात कभी लौटकर वापस नहीं जा सकती । जब भी किसी के सामने हम कोई बात रखे तो एक बार इस बात पर विचार जरूर करे कि यदि वही बात हमें कही जाये तो क्या वह हमारे लिए उचित होगी, हमें पसंद आएगी ? हमें उस बात को सुन कर कैसी अनिभूति होगी ?
बस अपने भीतर सकारात्मक सोच को बनाये रखें और जीवन का मूल मन्त्र - 'अच्छा खाना , स्वस्थ्य जीवन और सुन्दर वचन' को अपनाये।
आज बस इतना ही !
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