कंकड़ -एक छोटा सा टुकड़ा ,जो शिला से टूटकर अलग हो जाने से स्वतः ही बन जाता है। जो अपने अस्तित्व की पहचान बनाने के लिए निरन्तर प्रयास करता रहता है। एक शिला, जो की गढ़े जाने के बाद धर्म और आस्था की प्रतिमूर्ति बन जाती है, पर हमारा ध्यान उस नन्हें कंकड़ पर नहीं जाता है, जो उस शिला का हिस्सा था, जिसे छीनी हथौड़े की चोट से अलग कर दिया जाता है। क्या कसूर होता है उसका ? कुछ लोगों का जीवन भी उस छोटे से कंकड़ के सामान ही होता है, जो निरन्तर अपने अस्तित्व की तलाश में प्रयत्नशील रहता है।
मैं सोचतीं हूँ कि क्या सिर्फ ऊँचे कुल में जन्म ले लेने मात्र से कोई महान व्यक्ति जाता है ? क्या वो सारे गुण उस व्यक्ति के व्यवहार में स्वतः ही आ जाते हैं ? नहीं। मेरा मानना है कि व्यक्ति के सुन्दर व्यक्तित्व और अच्छे मन का आइना उसके अच्छे कर्म होते है। यही सब उसके व्यक्तित्व की एक पहचान बनाते हैं। जो लोग ऐसा सोचतें हैं कि ऊँची जात, ऊँचे कुल में जन्म ले लेने मात्र से ही उनका भाग्योदय हो जाता है, तो उनकी ऐसी सोच गलत है। अपने कर्मों द्वारा व्यक्ति दूसरों के दिलों पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है, जो जीवन पर्यन्त नहीं मिटती। हमें अपने कर्मों पर हमेशा भरोसा रखना चाहिए। क्योंकि कर्मो के द्वारा ही हम अपने भाग्य को संवार सकते है। समय का क्या है, वह कभी एक जैसा नहीं रहता।