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शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

बचपन..

BACHPAN



बचपन ! एक ऐसा शब्द है, जिसकी कल्पना मात्र से ही हर व्यक्ति के होंठों पर पर एक मुस्कान सी आ जाती है और वो मीठी यांदें ताजा हो जाती है ,जिनको हमने उन छड़ो में जिया है। हमारी माँ की हाथों की बनी मिठाईओं को, कभी माँ से  बिना बताये ले लेना ,पापा के दिए सिक्कों से मन चाही मीठी गोलिओं को खरीदना  ,बहन की चुटिया खींचनी हो या भाई के कलर पेंसिल को बिना बताये इस्तेमाल करना। वो झगड़े,रोना -रुलाना ,रूठना फिर मानना। वो नानी के घर माँ  साथ जाना और वहां के गावों में घूमना। कभी मामा  के गाड़ी की पहिये से हवा निकाल  देना। कभी मामी के बिंदी को लगा कर माँ जैसी बनाने की चाहत भुलाये नही भूलती। 

मगर आज हम उम्र के उस पड़ाव  में है, जब हमें जीवन के इस भागम-भाग भरे सफर में फुर्सत ही नही है कि  उन लोगों के बारें  में पूछें जो  कभी हमारे जीने की  वजह थे, हमारे होठों  सच्ची खुशी थे। माँ के उन पराठों का जायका हमारे पिज्जा ,बर्गर में कहाँ है। खीर क्या फ्रूट सैलट का  मजा दे सकता  है।  हमने खुद को मॉडर्न   बना लिया है ,पर  हम उन दिनों को क्या वापस ला  सकते है। मुझे  याद है जब माँ  के साथ नानी के घर जाती थी ,वहां  हमें मन पसंद की चीजे  को मिलती थी। खूब घूमना फिरना ,बे रोक -टोक कहीं  भी जाना ,दिन भर मौज मस्ती करना बहुत भाता था। मांमा  की सुनाई तोते की कहानी ,मामी जी के हाथ के  कचोरी समोसे कभी भुलाये नहीं भूलते। नानी के हाथों की सर की मालिश जैसी उन यादों की एक अलग ही छाप दिलों दिमाग में छा गई है। 

काश हम एक बार फिर बचपन में लौट पाते  ! फिर वही जीवन जी  सकते। अब तो किसी के पास समय ही नही की कोई किसी से अपने दिल  की  बात करे।  बचपन तो हर ऊँच -नीच , गरीबी- अमीरी से परे  होता है।  अपने -पराय का फर्क किये बिना सब में प्यार बांटता है।  सभी से एक प्यारा रिश्ता बना लेता है।  बचपन में सभी ने शरारतें की होंगी, कम या अधिक।  जब मैं छोटी थी, मेरे भाई और मैं साथ गेम खेलते थे।  मैं हमेशा उससे जीत जाती थी, और वो हार कर उदास हो जाता था।  अगले दिन मैं उसे फिर जीता कर  खुश कर देना चाहती थी , और उसे खुश  देखकर मुझे बहुत ख़ुशी होती थी। 

सच में, हमारा मन बचपन में जैसा सोचता था, वैसी नादान  सोच ,काश ! हमारे बड़े होने पर भी कायम रह सकती।  हम किसी के दिल को ठेष पहुंचाते हैं , तो हमें दुःख नहीं होता है।  हमारी भावनाओं की  दीवारें  मजबूत हो गयी हैं कि किसी के दुःख दर्द का हमें एहसास नहीं होता। बात कुछ दिन पहले की है , मुझे और मेरी बहन को बाज़ार सामान लेने जाना था।  हम रिक्शे पर थे। तभी हमने देखा , एक लड़का , जो 13 -14 वर्ष का होगा , उसे लोग बुरी तरह पीट रहे थे।  वह लगातार लोगों  से माफ़ी  रहा था।  उसके  हाथ में जो फूलों की  टोकरी थी,  अब सड़क पर बिखरी थी।  शायद वह फूलों को खरीदने के लिए कह रहा था और इसी बीच दो बाइक आपस में हलके से टकरा गए। लोगों ने उस बच्चे की मजबूरी को नजर-अंदाज कर उसकी छोटी सी गलती के लिए न जाने कितनी  चोटें पहुंचा दी।  क्या हमारी भावनायें इतनी मर चुकी हैं कि हमें कोई फरक ही नहीं पड़ता है ?  हम इतने संवेदनहीन  कब हो गए , पता ही नहीं चला..  

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