क्या बात थी ? आज रामू बहुत खुश था। बहुत ही ज्यादा खुश। आज जीवन में पहली बार उसकी हाथों में मीठे, शुद्ध देशी घी से बने पेड़ा का दोना जो था, जिसकी केसर और इलायची खुशबू रामू के तन-बदन को महका रही थी। वह बस एक टक पेड़े के दोने को देखे जा रहा था।
तभी मालकिन की आवाज सुन कर रामू की तन्द्रा टूटी। मालकिन ने रामू से कहा, "साहब ने जो कागज दिया था, वो कहाँ है ?" रामू को मालिक ने जो कागज दफ्तर से घर ले जाकर देने को कहा था, उसने उसे मालकिन के हाथों में पकड़ाते हुए, वह एक बार फिर से पेड़ों की मिठास की दुनियां में खो गया। वह यही सोच रहा था कि ये पेड़े खाने में कितने स्वादिष्ट होंगे।
तभी मालकिन ने रामू से कहा,"रामू ! बैठे क्यों हो ? खाओ ना। " मालकिन की बात सुन कर रामू को रहा न गया और उसने एक पेड़ा उठाकर मुंह में रख ही लिया। फिर उस पेड़े की मिठास से रामू का रोम -रोम आनन्दित हो गया। एक पेड़ा खाने के बाद उसको अपने परिवार का ख्याल आया।
रामू यही मिठास अपनी पत्नी व बच्चों के मुँह में घोल देना देना चाहता था। क्योकि वह मुश्किल से दो जून की रोटी का जुगाड़ ही जैसे-तैसे कर पाता था। फिर इन पेड़ों का उपहार पत्नी और बच्चों के लिए किसी विशेष उत्सव में निमंत्रण से कम नहीं था। रामू ने परिवार का ख्याल आते ही पेड़ों को समेटने की चाह में दोने को उठाया।
तभी मालकिन ने रामू कहा ,"सारे खा लो। और है। घर ले जाना बीवी ,बच्चों के लिए " और ये कहते हुए एक और पेड़े से भरा दोना रामू की ओर मालकिन ने बढ़ाया। रामू पेड़ों को देखकर फूला नहीं समा रहा था। वह यही सोच रहा था कि मालिक ने अगर कागज मालकिन को घर जाकर देने को नहीं कहा होता तो वह मालकिन के द्वारा दिए गए पेड़ों के उपहार से वंचित रह जाता।
रामू मालिक के घर 5 किलोमीटर पैदल चलकर कड़ी धूप में आया था। आज, हरिया की साईकिल पंचर हो जाने के कारण रामू को नहीं मिल सकी थी। हरिया से साईकिल लेकर वह अक्सर घर से मालिक के ऑफिस जाया करता था। पर अब रामू को तपती धूप का कोई अहसास ही नहीं था। मालकिन के दिए पेड़े उसके लिए किसी बारिश से कम नहीं थे। रामू आज से पहले मालकिन के इस दयालु स्वभाव से कभी परिचित नहीं हुआ था।
अब रामू के पास एक ही लक्ष्य था। उन पेड़ों को परिवार को खिलाकर उनके चेहरे पर खुशी देखना। रामू ने दोने को समेटा और घर जाने के लिए खड़ा हुआ। अभी वह मालकिन के घर से चार कदम ही चला था कि तभी घर के काम वाली बाई की आवाज रामू के कानों में पड़ी कि "मालकिन इन बचे पेड़ों को कूड़े में डाल आऊं ? ये तो आपके किसी काम के नहीं रहे। इसमें बिल्ली ने गंदगी जो कर दी थी,मैं तो इसे खाने से रही।"
कामवाली की बातों को सुन रामू हत्प्रभ रह गया। वह अब मालकिन की दयालु प्रवृति से शायद परिचित हो चुका था। जो पेड़े अभी तक उसके मुँह में मिठास घोल रहे थे, वे अब इतने कड़वे हो गए थे कि रामू उन पेड़ों की कड़वाहट का अहसास अपने परिवार को नहीं करवाना चाहता था।
रामू ने पेड़ों के दोनों को सड़क के किनारे फेक दिया और रामू सोचने लगा कि अगर इन पेड़ों को अपनी पत्नी और बच्चों को खिला देता और ये बातें अगले दिन पता चलती तो खुद से कैसे नजरें मिलाता ? और उसकी आँखो से आँसू छलक जाते हैं।
सच ! कैसी विडंबना है ये ? कैसी रेखा है अमीरी और गरीबी की ? अफसोस होता है ऐसी मानसिकता पर। जिसके पास सम्पन्नता है, धन है, वो गरीबो को क्यों इतनी नीची दृस्टि से देखते हैं ? क्या इंसान की कीमत सिर्फ रुपयों से होती है, वरना उसका कोई मोल नहीं ?
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